चुनावों में मुफ्तखोरी का प्रचलन: राज्य की वित्तीय स्थिति पर गहराता संकट

प्रतीकात्मक फोटो।

सुरिन्द्र कुमार: भारत में चुनावों का समय ऐसा होता है, जब राजनीतिक दलों के बीच वोट हासिल करने की होड़ मुफ्त सुविधाओं और योजनाओं के वादों के जरिए चरम पर होती है। चाहे वह मुफ्त बिजली हो, मुफ्त गैस सिलेंडर, लैपटॉप या बेरोजगारी भत्ता, हर राजनीतिक दल जनता को लुभाने के लिए इस 'मुफ्तखोरी' की संस्कृति को बढ़ावा देता है। लेकिन क्या कभी सोचा है कि इन वादों का वास्तविक परिणाम क्या होता है?

मुफ्तखोरी: राजनीति की अनिवार्यता या राज्य की बर्बादी?

मुफ्त योजनाओं का प्रचलन भारत में नई बात नहीं है। यह प्रवृत्ति तमिलनाडु और आंध्र प्रदेश जैसे राज्यों से शुरू होकर देशभर में फैल गई। राजनीति में यह मान्यता बन गई है कि जनता को आकर्षित करने का सबसे सरल तरीका मुफ्त योजनाओं का वादा करना है। लेकिन इन योजनाओं की असली कीमत कौन चुकाता है? जवाब है - करदाता।

तमिलनाडु: मुफ्तखोरी का प्रारंभिक केंद्र

तमिलनाडु वह राज्य है, जिसने सबसे पहले मुफ्त योजनाओं को व्यवस्थित और योजनाबद्ध तरीके से चुनावी रणनीति का हिस्सा बनाया।

1967 में डीएमके का उदय

डीएमके (द्रविड़ मुनेत्र कड़गम) ने 1967 में सत्ता में आते ही गरीबों और किसानों के बीच अपनी लोकप्रियता बढ़ाने के लिए कई मुफ्त योजनाओं की शुरुआत की। इनमें मुफ्त खाद्यान्न और कम कीमत पर चावल उपलब्ध कराना प्रमुख था।

एमजीआर (1977-1987)

एमजी रामचंद्रन (एमजीआर) की सरकार ने 1982 में ₹2 प्रति किलो चावल योजना शुरू की। इसने गरीब तबके को बड़े पैमाने पर आकर्षित किया और यह योजना इतनी लोकप्रिय हुई कि अन्य राजनीतिक दलों ने भी इसी तर्ज पर अपने चुनावी वादे बनाए।

जयललिता और करुणानिधि की प्रतिस्पर्धा

एआईएडीएमके और डीएमके के बीच वोट बैंक मजबूत करने की होड़ में मुफ्त योजनाओं की बाढ़ आ गई। जयललिता ने महिलाओं को मुफ्त मिक्सर-ग्राइंडर और एलपीजी सिलेंडर दिए।

डीएमके ने मुफ्त टीवी सेट और लैपटॉप बांटने की शुरुआत की। महिलाओं के लिए मुफ्त साड़ी और चांदी की वस्तुओं का वितरण भी किया गया।

आंध्र प्रदेश:  एनटी रामाराव की 'कल्याणकारी राजनीति'(1983-1989)

तेलुगु देशम पार्टी (टीडीपी) के नेता एनटी रामाराव (एनटीआर) ने ₹2 प्रति किलो चावल योजना की शुरुआत की। इसने गरीब तबके के बीच टीडीपी की जड़ें मजबूत कीं और अन्य दलों को भी इसी तर्ज पर योजनाएं बनाने के लिए मजबूर किया।

वाईएसआर रेड्डी (2004-2009)

आंध्र प्रदेश में वाईएसआर कांग्रेस ने किसानों और गरीब तबके के लिए मुफ्त बिजली और स्वास्थ्य सेवाओं जैसी योजनाएं पेश कीं। वाईएसआर की "आरोग्यश्री योजना" ने गरीबों को मुफ्त स्वास्थ्य बीमा प्रदान किया, जिससे उनकी लोकप्रियता बढ़ी।

चंद्रबाबू नायडू

चंद्रबाबू नायडू ने 1999-2004 के दौरान तकनीकी क्षेत्र को बढ़ावा दिया, लेकिन उनकी लोकप्रियता बनाए रखने के लिए भी मुफ्त योजनाओं पर जोर दिया गया।

हिमाचल प्रदेश जैसे छोटे राज्यों में यह प्रवृत्ति और भी खतरनाक साबित हो रही है। राज्य का राजस्व सीमित है, जबकि मुफ्त योजनाओं के लिए बजट बढ़ता जा रहा है। नतीजतन, राज्य सरकार को कर्ज लेने पर मजबूर होना पड़ता है। रिपोर्ट्स के अनुसार, हिमाचल प्रदेश पर 2024 तक कर्ज का आंकड़ा 75,000 करोड़ रुपये के पार हो गया है। यह कर्ज मुख्यतः उन योजनाओं के लिए है, जिनका उद्देश्य केवल चुनावी वादे पूरे करना होता है।

विकास की उपेक्षा और दीर्घकालिक प्रभाव

मुफ्त योजनाएं वित्तीय अनुशासन को कमजोर करती हैं। ऐसे में विकास कार्य जैसे सड़कों का निर्माण, स्कूलों और अस्पतालों का आधुनिकीकरण, और रोजगार के अवसर पैदा करना प्राथमिकता सूची से गायब हो जाते हैं। इससे राज्य के दीर्घकालिक विकास पर नकारात्मक प्रभाव पड़ता है।

जनता की भूमिका: मुफ्त का मोह या विवेकपूर्ण चुनाव?

चुनावों के दौरान, जनता का मोह मुफ्त योजनाओं की ओर होता है। लेकिन क्या जनता को यह समझने की जरूरत नहीं है कि 'मुफ्त' का कोई अस्तित्व नहीं होता? जो चीज आज मुफ्त दी जा रही है, उसकी कीमत कल करदाता के माध्यम से वसूली जाएगी। इसके अलावा, बढ़ते कर्ज का बोझ आने वाली पीढ़ियों पर एक काले बादल की तरह मंडराता रहेगा।

वित्तीय जिम्मेदारी की आवश्यकता

राजनीतिक दलों को यह समझना होगा कि मुफ्त योजनाओं से वोट तो मिल सकते हैं, लेकिन यह राज्य की अर्थव्यवस्था को खोखला कर देता है। इसके लिए जरूरी है कि जनता भी अपने अधिकारों और कर्तव्यों को समझे और राजनीतिक दलों से जवाबदेही मांगे।

इसके अलावा, सुप्रीम कोर्ट और चुनाव आयोग को इस प्रवृत्ति पर सख्त रुख अपनाना चाहिए। हाल ही में सुप्रीम कोर्ट ने मुफ्त योजनाओं को राज्य की वित्तीय स्थिति के लिए खतरनाक बताया था। यदि इस पर कड़ा कानून नहीं बना, तो यह प्रवृत्ति भविष्य में देश के लिए घातक सिद्ध हो सकती है।

तमिलनाडु और आंध्र प्रदेश ने भारतीय राजनीति में मुफ्त योजनाओं की नींव रखी, जिसने पूरे देश को प्रभावित किया। लेकिन यह जरूरी है कि राजनीतिक दल और जनता, दोनों, इस प्रवृत्ति को खत्म करने और दीर्घकालिक विकास पर ध्यान केंद्रित करने की दिशा में काम करें।

राजनीति को मुफ्त योजनाओं से ऊपर उठकर वित्तीय स्थिरता और समावेशी विकास पर केंद्रित करना चाहिए, ताकि राज्य की आर्थिक सेहत और जनता का भविष्य सुरक्षित रहे। मुफ्त योजनाओं का लालच जनता को लुभाने का एक आसान तरीका हो सकता है, लेकिन यह न तो राज्य के हित में है और न ही जनता के। राजनीति को 'वोट-बैंक' से ऊपर उठकर राज्य की वास्तविक समस्याओं पर ध्यान केंद्रित करना चाहिए।

राजनीतिक दलों और जनता, दोनों को यह समझना होगा कि असली विकास वह है, जो मुफ्त योजनाओं से परे जाकर दीर्घकालिक स्थिरता और समृद्धि की ओर ले जाए। 


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