अंतिम ऊँचाई (कुँवर नारायण)
Source : Amar Ujala (Hindi Daily) कितना स्पष्ट होता आगे बढ़ते जाने का मतलब अगर दसों दिशाएँ हमारे सामने होतीं, हमारे चारों ओर नहीं। कितना आसान होता चलते चले जाना यदि केवल हम चलते होते बाक़ी सब रुका होता। मैंने अक्सर इस ऊलजलूल दुनिया को दस सिरों से सोचने और बीस हाथों से पाने की कोशिश में अपने लिए बेहद मुश्किल बना लिया है। शुरू-शुरू में सब यही चाहते हैं कि सब कुछ शुरू से शुरू हो, लेकिन अंत तक पहुँचते-पहुँचते हिम्मत हार जाते हैं। हमें कोई दिलचस्पी नहीं रहती कि वह सब कैसे समाप्त होता है जो इतनी धूमधाम से शुरू हुआ था हमारे चाहने पर। दुर्गम वनों और ऊँचे पर्वतों को जीतते हुए जब तुम अंतिम ऊँचाई को भी जीत लोगे— जब तुम्हें लगेगा कि कोई अंतर नहीं बचा अब तुममें और उन पत्थरों की कठोरता में जिन्हें तुमने जीता है— जब तुम अपने मस्तक पर बर्फ़ का पहला तूफ़ान झेलोगे और काँपोगे नहीं— तब तुम पाओगे कि कोई फ़र्क़ नहीं सब कुछ जीत लेने में और अंत तक हिम्मत न हारने में। स्रोत : - पुस्तक : प्रतिनिधि कविताएँ रचनाकार : कुँवर नारायण प्रकाशन : राजकमल प्रकाशन