राजनीतिक परिवेश में सिकुड़ता पर्यावरण
द ईरावती : मानवीय स्वार्थपराणयता आज इस कदर चरम पर पहुंच चुकी है कि अपने एश्वर्य और आरामदायक जिंदगी हेतु उसने प्रकृति का अंधाधुंध शोषण करने की जैसे कमर कस ली है। मानव का यह घनघोर कृत्य जिसका अनुमान और भरपाई संभव नही। परिणामस्वरूप, वन्य जीवों व पौधों से लेकर मानव जीवन का अस्तित्व भी खतरे में पड़ चुका है। ये अलग बात है कि कुछ जीव-जंतु व पौधे बिल्कुल ही विलुप्त हो चुके हैं बाकी अमानवीय करतूतों की बदौलत उसी राह पर है। जिस मुद्दे पर गौर किया जाना चाहिए वो एकमात्र पर्यावरण की समस्या नहीं अपितु संपूर्ण पारिस्थितिक तंत्र का असंतुलतन आदि है और ये किसी एक राष्ट्र में नहीं वरन वैश्विक स्तर पर की समस्याएं है। पृथ्वी पर जीवन-यापन के लिए सभी प्राणियों के लिए स्वच्छ पर्यावरण बहुत जरूरी है और इस हिसाब से उसका संरक्षण अत्यंत ही अवश्यक है। लेकिन देश व प्रदेश की सरकारों द्वारा सिर्फ पर्यावरण के कानून बनाकर लागू करके ऐसे निश्चिंत है जैसे मानों यह कोई सामान्य घटना हो। प्राकृतिक साधनों को नैसर्गिक बपौती मानते हुए विश्व पर्यावरण के अक्षय विकास से संबंधित संयुक्त राष्ट्र संघ ने 1972 स्टॉकहोम में पर्यावरण सम्